kavita

मैं भावों का राजकुमार

मेरे स्वागत में हँसतीं कलियाँ रज पर अपने कच्चे दृग मीचे
तरु ने ज्यों रक्खा हो तुरत उतार
चलता हूँ तो सुंदरता अँगड़ाई लेती है मेरे चरणों के नीचे
जैसे सागर में लहरें सुकुमार
दो डग बढ़ती प्रकृति-कुमारी सकुचीली मुख पर कोमल
किसलय-अवगुंठन खीचे
नयी वधू-सी ले यौवन-उपहार
तारों पर झंकार सदृश फिरते अधरों पर अधर सुरा से सीचे
उठकर थर्राते-से बारंबार
बाहु-वल्लरियाँ बनती हार

जिधर देखता मैं वसंत बिछ जाता भू पर, उठती ऊपर दृष्टि
बाज सदृश जब, यह सारा संसार
उठ जाता है स्वर्गलोक तक, पाने को मेरी करुणा की वृष्टि
लघु रज के कण करते नित श्रृंगार
भावों की भाषा जैसे अनुगामी, निखिल समष्टि रूप में व्यष्टि
अम्बर मैं, भूतल मैं, पारावार
शून्य, काल, नक्षत्र, ग्रहों पर जाता हूँ टेकता अगम की यष्टि
कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड खोलते द्वार
दिशायें करतीं जय-जयकार

उगी जहाँ यौवन की पहली स्मिति अधरों पर से परिचय में क्षीण
मैं अबोधता का बनता श्रृंगार
मैं मीठी भावनामयी लय-सी बनकर सुकुमार हृदय में लीन
कविता के मिस चोरी करता प्यार
जलती भौंहों की चिनगारी से उड़ते चल परिणय में यतिहीन
नयनों का मैं हूँ गोपन व्यापार
मैं वसंत, यौवन, सुषमा का अग्रदूत घनखंडों पर आसीन
आता हूँ जग-सरिता के इस पार
प्रेम का करने यहाँ प्रचार

देश, काल, जड़ बुद्धि-विपर्यय की न तनिक लग पाती जिन पर चोट
उन दृढ़ चट्टानों की रच दीवार
शाश्वत मैं भावों के उन्नत गढ़ में बैठा, भाषा की ले ओट
यथायोग्य करता सबका सत्कार
लघु कवि-पुंगव छिपते जो दिखला प्रतिभा के क्षण-भंगुर विस्फोट
मैं अनंत उनका विस्मय-भंडार
दिव्य कल्पना-विभव रत्न-से रहे चरण-प्रांतों में मेंरे लोट
गीतों की सतरंगी ज्योति पसार
देखता कौतुक से संसार

विश्व मंच पर प्रकट हुई जो शेक्सपीयर की अद्भुत नाट्य-कला-सी
पहने कोमल कविता का गलहार
कालिदास कवि की कुटिया में खेली मृगछौनों से शकुन्तला-सी
छवि की मोहक प्रतिमा जो सुकुमार,
मानस की मानसी, सूर के अंध नयन की ज्योति प्रखर चपला-सी
कोटि-कोटि कंठों की प्राणाधार
चंचल मधु-अंचला, खड़ी हिमनग पर, हिमनग-सी उज्जवल, अचला-सी
आज वही शारद-हासिनी उदार
दे रही मुझे विजय-उपहार
मैं भावों का राजकुमार

1942