kavita
कोयल ने गाया
कलियाँ चटकीं, फूल खिल उठे, मधुवन लहराया
दिया सँदेस हवा ने आकर
वहाँ हरे पत्तों के अंदर
कोई तड़प रही है सस्वर
कुसुम-बाण लेकर वसंत पल में दौड़ा आया
एक लहर-सी उठी अचानक
भू से नभ, वन से वारिधि तक
चित्रित तरु, गिरि, घाटी अपलक
विजड़ित गति, सब ओर प्रकृति में जादू-सा छाया
लहराये तरु वन-प्रांतर में
लहरायीं लहरें सागर में
लहरा उठे जलद अंबर में
हाट-बाट, वन, वीथि, डगर में वह स्वर लहराया
युग-युग से पत्तों में छिपकर
गाती है वह गीत निरंतर
स्नेहभरे, जीवनमय, सुंदर
जिसको कवि ने झूम-झूम मस्ती में दुहराया
मानवता की मृदु पुकार वह
बुद्धिवाद की अडिग हार वह
शाश्वत, स्वरमय, निराकार वह
मन में थी, सब छान लिया जग, पता नहीं पाया
कोयल ने गाया
1940