mere geet tumhara swar ho

वार्धक्य

देख नित्य बढ़ता प्रवाह क्रुद्ध नीर का
जैसे काँपता हो जीर्ण तरु नदी-तीर का
वैसे ही सत्रस्त हूँ मैं नित्य नयी व्याधियों से
देख ध्वस्त होते यह भवन शरीर का