nahin viram liya hai
सोचा भी, कब तक है तेरी
जिस काया पर फूल रहा तू – कहता, ‘मेरी’, ‘मेरी’!
इसकी साँसों की है सीमा
सुर बेसुरे, राग अब धीमा
माँग रही तुझसे धरती-माँ
अपनी रज की ढेरी
क्यों तू इसका मोह न त्यागे!
रूपरहित बनने से भागे!
डर क्या है, यदि तुझको आगे
दिखती रात अँधेरी
तम के पार ज्योति का है पुर
तार बिना जिसमें गूँजें सुर
पायेगा नव छवि, मिलनातुर
बंधुजनों से घेरी
सोचा भी, कब तक है तेरी
जिस काया पर फूल रहा तू – कहता, ‘मेरी’, ‘मेरी’!