anbindhe moti

जादू का घोड़ा

जादू के घोड़े पर चढ़कर राजकुमार सलोना
सात द्वीप, नव खण्ड छानता भू का कोना-कोना
फिरा, कहीं देखी न किंतु वह कवि-वर्णित सुकुमारी
जिसके रोने से मोती झड़॒ते, हँसने से सोना

सम्राटों की राजसभाएँ उसने देखीं जाकर
पंक्तिबद्ध बैठी थीं चिक में राजयुवतियाँ सुंदर
चुरा सुरभि जिनके हारों की मलयानिल आता था
सुन पड़ता था क्षण-क्षण हिलने से आभूषण का स्वर

देखी उसने कोहकाफ की कलामई बालाएँ
जा परखीं फारस की भी परियों की मधुशालाएँ
नागलोक की गौरांगी सुंदरियाँ रुचीं न उसको
पहुँच स्वयंवर में फेरीं संमुख से वरमालाएँ

उड्ता-उड़ता दूर एक दिन राजपुत्र का घोड़ा
उत्तर दिशि की ओर चला, मुड़ सका न उससे मोड़ा
छूटे नगर, द्वीप, देशों की राजधानियाँ कितनी
सागर पर उड़ उसने अंतिम चिहन भूमि का छोड़ा

पहुँचा जहाँ सिंधु था हिमवत्‌ तनिक न हिलता, बहता
छः महिने की रात वहाँ थी, छः महिने दिन रहता
मानुषजात नहीं चलता था कोई उजली भू पर,
किसे पूछता हाल वहाँ का, अपना परिचय कहता

‘पेड़ नुकीली पत्तीवाले बारह मास हरे जो
रहते थे हिम के टुकड़ों के श्वेत प्रसून भरे जो
दर्पण था संमुख यद्यपि था नहीं टूटने का डर,
दिखी अश्व पकड़े निज छाया, भू पर पाँव धरे जो

शैशव-सी उजली दोपहरी हिम पर खेल रही थी
किरणों के खर तीर रुपहली चादर झेल रही थी
राजकुँवर ने आगे बढ़कर देखी एक गुफा-सी
जिसके द्वार-विटप में कोई शहद उडेल रही थी

घूँघरदार बने गुच्छे थे रूखी स्वर्ण अलक में
नव प्रवाल-से अधर, भरा था कौतुक श्वेत पलक में
ढँके अर्ध, सित भल्लु-चर्म से, अंग विमूर्त कला-से
तारों में स्वर्गगा-सा था रंग तुषार-झलक में

देख रूप मोहित शहजादा भूल गया अपने को
पूरा देखा शैशव की सुंदरता के सपने को
सलज हँसी वह बाला, भू पर लगी स्वर्ण की ढेरी
दौड़ी झट वन-मध्य छोड़ प्रणयार्थी को तपने को

सहसा देखा राजपुत्र ने भालू एक भयानक
गुहा-द्वार से निकला, लोचन निद्रारुण ले भक-भक
गुर्रा, सित रोएँ फहरा वह, वृद्ध और लूला भी,
बढ़ा अश्व की ओर, लगा छाती में आ शर तब तक

ऐसी करुण कराह भरी सारी वनमाला काँपी
दौड़ी आयी फूल लिये वह बाला बेसुध, हाँफी
भरते देख सिसकियां अंतिम रोई लिपट पिता से,
मोती झड़े, दुखित सारी स्थिति राजपुत्र ने भाँपी

देखा संमुख भालु समझकर जिसको उसने मारा
भल्लु-चर्म से आवृत था वह बूढ़ा एक बिचारा
शायद कोई खोया नाविक मातृ-रहित पुत्री सँग,
यहाँ अकेला रहता होगा मनुज-सृष्टि से न्यारा

आशाहीन शोक देख उसने युवती के मन में
भाषाहीन यंत्रणा देखी मरते वृद्ध-नयन में
रोये पेड़, पत्तियाँ, हिम की पिघल गयीं चटूटानें,
घोड़ा रोया देख श्यामता स्वामी के आनन में

तम में बुझते दीप सदृश सहसा बूढ़े की आँखें
अंतिम क्षण में, चमक उठीं जैसे जुगनू की पाँखें
राजपुत्र का कर कन्या के कर में रख वह सोया
मूक देखता द्वार-विटप की हिम से उजली शाखें

1940

।. मैं अपनी बर्फ के फूल की कल्पना को अमेरिका में हिमपात होने पर सत्य रूप में देखता हूँ।