anbindhe moti

जो इस जग से चले गये हैं, “नहीं रहे वे जग में’
इतना भर ही कह सकते हैं, हम उनके जाने पर
कैसे हमने जान लिया वे, कहीं न और बसे हैं
क्या हमने सारे लोकों में, पता किया है जाकर ?

एक जगत तो बसा हुआ है, इस मन के अंदर ही
जिसमें से जानेवाले, हैं झलक दिखाते रहते
यदि वे कहीं न होते तो, सपनों में कैसे आते
निज अतृप्त अभिलाषाएं कैसे, हमसे आ कहते

धरती तो क्‍या रविमंडल से भी, हैं बहुत बड़े जो
ऐसे अगणित लोकों से यह नभ जगमगा रहा है
क्या फिर महासृष्टि में ऐसा, लोक न कोई होगा
जहाँ रूप नव लेकर, चेतन चक्कर लगा रहा है ?

2000