anbindhe moti

पूर्व स्मृति

विकल हृदय करता अनंत में भटक नये जीवन की खोज
लगता सब प्राचीन यहाँ पर जो कुछ देखा करता रोज

कोई दृश्य बाग का सरिता का या मानव ही कोई
साथ देखने के जग उठतीं युग-युग की स्मृतियाँ सोई
पहले से ही चित्र खिँचा वह मिलता है अंतर्पट पर
दर्शन से अंकित, पानी में जैसे साबुन के अक्षर

सुनता कोई बात भान होता ज्यों कहीं सुना इसको
शत-शताब्दियों के पहले, फिर आज सुन रहा हूँ जिसको
खिलखिल हँसी प्रियजनों की चांदनी सदृश जो खिली अभी
लगता है ज्यों-की-त्यों सुनने को पहले भी मिली कभी

मेरे गीत, भाव, भाषा, कल्पना और कविता मेरी
सदियों पहले गाये जाकर देते ज्यों नभ में फरी
लगता, कुछ भी नया न अपने छंदों में रख पाता हूँ
आते है जो शब्द किसी ध्वनि को जेसे दुहराता हूँ

मित्र, पड़ोसी, स्वजन, सनेही, बंधु और बांधव सारे
जन्म-जन्म के परिचित जैसे प्राणों को लगते प्यारे
सुना प्रेम हो जाता है कैदी का पहरेदारों से
चेतन तो क्‍या, मोह मुझे लगता है जड़ दीवारों से

विरह, आह ! खुलता है कितना, कैसे यह बतलाऊँ मैं !
जी करता है, कभी किसीको भी न छोड़कर जाऊँ मैं॥
मोह-लग्न में चिर-वियोग-दूतिका मृत्यु का आता ध्यान ‘
वे आते हैँ याद सदा के लिए हुए जो अंतर्धान

घन-प्रहार-से इस विचार से ही होता मन चकनाचूर
आज पास हैं जो, वे भी तो कभी सदा को होंगे दूर
पुनः सोचता, मर्त्व सभी हम एकएक कर इस जग से
एक जगह ही तो जायेंगे ओझल होकर भी दूग से

सँग-सँग जा न सके, आगे-पीछे ही क्‍या है कुछ क्षण में !
सभी इकटूठे होगें इंद्रपुरी के नंदन कानन में
‘फुल्ल कुसुम से खिला करेंगे जीवन, प्रेम, वसंत वहां
नहीं विरह का नाम, मिलन का होगा रूप अनंत वहां

नित नूतन उन्माद लिये मदमाती परियाँ आयेंगी
नहीं समय की घड़ियों से जीवन-लड़ियाँ कुम्हलायेंगी
फिरा करेंगे वहाँ मस्त हो इस जीवन के सुख-दुख भूल
जैसे महासिंधु में मछली, नभ में विहग, हवा में भूल

1940