anbindhe moti

पूस की रात

आज रात भीषण ठंडक है दो तिनकों की आड़ कर
भूखा कोई सो न गया हो घुटनों में सिर गाड़कर !

व्यर्थ सभी सिद्धांत, सर्जना, यह दुख सके न मेट जो
भरा हुआ वैभव क्‍या देखूँ, खाली रहती टेंट जो !
यंत्र सभी जीवन के हित हैं, मानव ऊँचा वाद से
आग लगे उन खलिहानों में, जनता भूखे पेट जो

क्षीरधि का क्या करूँ क्षुघित यदि वत्स न पाते माँड भर

कोई छल, कौटिल्य न जाने, तके न पर-धन-ओर भी
कहाँ जाय ? क्‍या करे रक्त के बदले मिले न कौर भी
वृत्ति यही यदि व्यक्ति-व्यक्ति की, व्यक्तिवाद का नाश हो
स्वयं समाज सिखा दे जन-जन को जीने का तौर भी

भूखा रहे न कोहे चाहे श्रम लो छाती फाड़कर

मैंने गुण गाये स्वतंत्र अभियानों के, तप, त्याग के
जिससे धावित जीवन का रथ, उस अतृप्ति की आग के
पर मैं ऊँचा कह न सकूँगा, अब उस राज्य, समाज को
जिसमें नंगे-भूखे मानव रात बिताएं जागके

एवरेस्ट क्‍या चंद्रलोक पर आओ झंडा गाड़कर

आज रात भीषण ठंडक है दो तिनकों की आड़ कर
भूखा कोई सो न गया हो घुटनों में सिर गाड़कर !

14 जनवरी 1 965