anbindhe moti
प्रिंस फिलिप को देख सोचता था यह मन में
भाग्यवान ऐसा कोई होगा त्रिभुवन में !
कोहनूर-से रत्न, मुकुट पर जिसके शोभित
कोटि-कोटि जन रहते दर्शन को लालायित
सुंदरता, यौवन, वैभव की जो चिर-सीमा
जिसका राज्य-प्रसार मानवी-सृष्टि असीमा
एलिजाबेथ वह अंक-शायिनी जिस मानव की
तुलना क्या सुरपति से भी उसके वैभव की !
प्रिय की ओर बंक भ्रू, रस से भरी फिराती
जब वह जनोल्लास में से हँस बढ़ती जाती
कितनी मोहक लगती, उस क्षण का क्या कहना?
जब नयनों से देती होगी मधुर उलहना
फिर मन में जागा यह भाव कि मुझे विधाता
कहीं उसीका-सा सुंदर जीवन मिल जाता
क्यों होता अर्थोपार्जन-श्रम, शासन का भय
भावी की उलझन, पग-पग पर चिंता, संशय !
तभी सुनाई दिया श्रीमतीजी का कटु स्वर
काव्य-पुस्तकें ये क्यों ले आये खरीदकर?
लाज न आती तुम्हें कि रह कर स्वसुर-निलय में
लुटा रहे हो पैसे ऐसे-वैसे क्रय में !
लो, बच्चों को सैर करा आओ बगिया की
लॉन्ड्री से लौटते साड़ियाँ लाना माँ की
और न कुछ तो तनिक खेत की ही दिशि जाओ
नई मटर की फलियाँ चुन-चुनकर ले आओ
मैंने सुना, और फिर खींच उसाँसें ठंडी
उठा लिया झोला, कंधे पर डाली बंडी
उँगली धरे चला बच्चों की चें-में सुनता
प्रिस फिलिप के चरित अलौकिक मन में गुनता
1951