anbindhe moti

मैं तुम्हारा हास लूँगा
जो कपोलों में रहा खिल मैं वही मधुमास लूँगा

जो नहीं बँध पा रहा है अधखुली अँगड़ाइयों में
जो बिखरता जा रहा है दुग्ध-गौर कलाइयों में
जो झुकी, तिरछी, मुड़ी, सुकुमार ग्रीवा से न छिपता
जो सिहरता है सतत उर की सघन परछाइयों में

मैं तुम्हारे मुदु अधर का प्रिय वही उल्लास लूँगा

प्राण पलको-से बिछे जिसके लिए परिहास-पथ मे
जो बिठा ले जा रही है चेतना को चंद्र-रथ में
ठिठकती, रुकती, नवल अभिसारिका-सी चल रही मृदु
जो समझ पाती न कुछ अंतर मिलन के आदि-अथ में

मैं प्रणय-पुलकित तुम्हारी प्रिय वही निःश्वास लूँगा

स्नेह जिसका बन गया वरदान गीतों में समाया
रूप जिसका बन गया अभिमान दृग में छलछलाया
रीझना पल भर बना जिसका अमर श्रृंगार मेरा
मौन जिसका बन गया विष-पान, अंतर तिलमिलाया

मैं सरल मन क़ा तुम्हारे प्रिय वही विश्वास लूँगा

मैं तुम्हारा हास लूँगा
जो कपोलों में रहा खिल मैं वही मधुमास लूँगा

1948