anbindhe moti

वार्तालाप एक मित्र से

खाना और पीना
यही जीना !

बातें सुनते हैं
जैसे फूल चुनते है
बीच-बीच में चाय को भी पड़ता है पीना

‘ऐसा अफसर आया है
कुछ मत पूछें
मोटर लौटा दी, “नहीं चाहिए!
फेंक दिये अंगूरों के गुच्छे
छूछे
जाड़े में भी आ गया पसीना’
सहसा ध्यान-भंग कैसा
मेनका को देखकर विश्वामित्र के जैसा !
‘पास के नुक्कड़ से आयी है
यों तो इसकी माँ से भी अपनी आशनाई है
पर इसकी बात कुछ और ही है
जवानी भी चाय का दौर ही है
अभी गरम, अभी ठंडी”!

पहनकर बंडी
उतर गये जीना
खाना और पीना
यही जीना !

1965