har moti me sagar lahre
सताती है अब भी तो चिंता
एक-एककर जब अपने जाने के दिन हूँ गिनता
मन के दर्पण में अब भी छायी है मोह-मलिनता
जैसे श्वान विकल हो मुख का ग्रास देखकर छिनता
भाव गहन, भाषा सुबोध, रस-अनुभव में न कठिनता
क्या देगा यह काव्य देव-गुरु-ऋण से मुझे उऋणता ?
पायी सदा कृपा जिसकी, क्या करे न सुदिन कुदिनता
जिससे चलते क्षण स्मृति कर मन, नाचे, ता-धिन-धिन-ता !
सताती है अब भी तो चिंता
एक-एक-कर जब अपने जाने के दिन हूँ गिनता