गीत-वृन्दावन_Geet-Vrindavan
- यों तो कालिंदी है काली
- मेघ तो फिर-फिर ये छायेंगे
- युगल छवि देखे ही बनती है
- निर्जन यमुना-तट से
- तृण की ओट छिपे गिरधारी
- इसी कदम्ब तले
- लौटकर हरि वृन्दावन आते!
- न क्या सुधि आयी वृन्दावन की
- तुमने अच्छी प्रीति निभायी!
- सुना जब हरि है जाने वाले
- न कोयल कूके वृन्दावन में
- फिर घनश्याम गगन में छाये
- राधा मुरली कर में लेती
- राधा हरि को देख न पाती
- सुना, ब्रज में फिर श्याम पधारे
- राधिका दौड़ द्वार तक आयी
- रात यदि श्याम नहीं आये थे
- पत्री कैसे लिखूँ, कन्हाई!
- लोग थे फूले नहीं समाये
- चलो मधुवन में चलकर नाचें
- ‘चलो, सब चले द्वारिका मिलकर’
- द्वारिका में जब कोयल बोली
- दूत ने माँ के वचन सुनाये
- कौन बाबा की व्यथा बताये!
- स्वप्न में राधा पडी दिखाई
- ‘मुरली राधा ने भिजवाई’
- मुरली कैसे अधर धरूँ!
- कहा हरि ने ‘ब्रज-रज है प्यारी
- कोई राधा से कह देता
- रुक्मिणी बोली, — ‘पत्रा लाओ
- रुक्मिणी हारी जब समझा के
- ‘रहिये चल कर वृन्दावन में
- भीड़ में राधा पड़ी दिखाई
- ‘कितनी बदल गयी तू राधे!
- ‘राधे! कुछ तो मुँह से कहती!
- ‘कहीं ये सपना टूट न जाये!
- ‘सूखा सावन,पूनो काली
- ‘राधे! कैसे भूली जायें
- ‘मन के तार तुझी से बाँधे
- ‘नहीं वृन्दावन दूर कहीं था
- द्वारिका में, प्रभु! सुख से सोते
- कौन कहता है, हम बिछुड़े हैं
- नाथ! क्या राधेश्याम कहाये
- मैंने नारी-तन क्यों पाया !
- अब तो छोड़ नहीं जायेंगे !
- करूँ क्या नहीं समझ में आता
- हाय! अब तो आशा भी खोयी
- लौट कर व्रज में कैसे जाऊँ
- याद किस-किसकी उस क्षण आयी !
• “यदि गुलाबजी ने और कुछ भी न लिखकर केवल ’गीत-वृन्दावन’ और ’सीता-वनवास’ की रचना की होती तो भी हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवियों में उनकी गणना होती.”
-इंदुकांत शुक्ल (यू॰एस॰ए॰)