सब कुछ कृष्णार्पणम्_Sab Kuchh Krishnarpanam
- अच्छे रहे मन से जो तुम्हारे ही रहे
- अब तो चलने के दिन आये
- अब यह खेल अधूरा छोड़ो
- अब यह नव प्रभात मधुमय हो
- अयि मानस-कमल-विहारिणी!
- आया चरण-शरण में बेसुध
- इस अँधेरे, बंद घर में
- इस मधुयामिनी के बाद
- ओ मेरे मन!
- ओ मेरी मानस-सुंदरी!
- ओ विदेशिनी!
- कहाँ मुक्ति का द्वार?
- क्या है इस मन में!
- किसने जीवन दीप जुगाया!
- कैसे रूप तुम्हारा देखूँ!
- कोई जा रहा है सवेरे-सवेरे
- चिंता क्या, मन रे!
- जीवन-स्वामी!
- तू है तो भय क्या!
- तेरा साथ नहीं छोडूँगा
- देश अनजाना रहे तो क्या!
- धीरे-धीरे उतर रही है
- नयी रश्मियाँ आयें
- नाच रे मयूर-मन! नाच रे!
- निरुद्देश्य, नि:संबल, निष्क्रमित, निरस्त
- फूल और काँटे
- फूल गुलाब के
- फूल वसंत के
- फूल मुरझा गए देखते देखते
- फूल मुरझाने लगा है
- बहुत दिन बीते गीत सुनाते
- बार-बार छलते हो प्राण-धन!
- बैठा हूँ आकर तेरी देहली के पास
- भय से दो त्राण
- मन का विष हरण करो हे!
- महासिंधु लहराता
- मिट्टी! छोड़ चरण तू मेरे
- मिट न सकेगी अब यह विरह-व्यथा
- मृत्तिके! तेरी ही जय होगी
- मिलन की वेला बीत गयी
- मिलेंगे फिर भी यदि जीवन में
- मुझे न होगी धन की चिंता
- मेरा मन विश्राम न जाने
- मेरे जाने की वेला है
- मैंने तेरी तान सुनी है
- मैंने रँग-रँग के फूल बिछाए है
- मैंने सपने में प्रिय देखे
- यदि मैं तुम्हें भूल भी जाऊँ
- रक्षा करो इनकी, प्रभु! काल के झकोरों से
- सब कुछ कृष्णार्पणम्, सब कुछ कृष्णार्पणम्
- सब कुछ स्वीकार
- सब धरती की ही माया
- सहज हो प्रभु साधना हमारी
- हम सब खेल खेलकर हारे
- हमारा फिर श्रृंगार करो
- हमारा प्यार अधूरा है
- हर संध्या श्रृंगार किये मैं
- हाथ से साज़ नहीं छोड़ा है
- “’विनयपत्रिका’ के तुलसी की तरह ’सब कुछ कृष्णार्पणम्’ का कवि भी अपने प्रभु से साक्षात् वार्तालाप करता-सा प्रतीत होता है।”
-पं. विष्णुकान्त शास्त्री (पू. अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, कलकत्ता वि.विद्यालय, राज्यपाल, हिमाचल प्रदेश)