सब कुछ कृष्णार्पणम्‌_Sab Kuchh Krishnarpanam

  1. अच्छे रहे मन से जो तुम्हारे ही रहे 
  2. अब तो चलने के दिन आये   
  3. अब यह खेल अधूरा छोड़ो 
  4. अब यह नव प्रभात मधुमय हो    
  5. अयि मानस-कमल-विहारिणी!  
  6. आया चरण-शरण में बेसुध 
  7. इस अँधेरे, बंद घर में 
  8. इस मधुयामिनी के बाद 
  9. ओ मेरे मन! 
  10. ओ मेरी मानस-सुंदरी! 
  11. ओ विदेशिनी! 
  12. कहाँ मुक्ति का द्वार? 
  13. क्या है इस मन में! 
  14. किसने जीवन दीप जुगाया!  
  15. कैसे रूप तुम्हारा देखूँ! 
  16. कोई जा रहा है सवेरे-सवेरे  
  17. चिंता क्या, मन रे! 
  18. जीवन-स्वामी! 
  19. तू है तो भय क्या! 
  20. तेरा साथ नहीं छोडूँगा 
  21. देश अनजाना रहे तो क्या! 
  22. धीरे-धीरे उतर रही है  
  23. नयी रश्मियाँ आयें  
  24. नाच रे मयूर-मन! नाच रे! 
  25. निरुद्देश्य, नि:संबल, निष्क्रमित, निरस्त  
  26. फूल और काँटे 
  27. फूल गुलाब के 
  28. फूल वसंत के 
  29. फूल मुरझा गए देखते देखते 
  30. फूल मुरझाने लगा है 
  31. बहुत दिन बीते गीत सुनाते 
  32. बार-बार छलते हो प्राण-धन! 
  33. बैठा हूँ आकर तेरी देहली के पास 
  34. भय से दो त्राण 
  35. मन का विष हरण करो हे! 
  36. महासिंधु लहराता
  37. मिट्टी! छोड़ चरण तू मेरे  
  38. मिट न सकेगी अब यह विरह-व्यथा 
  39. मृत्तिके! तेरी ही जय होगी 
  40. मिलन की वेला बीत गयी 
  41. मिलेंगे फिर भी यदि जीवन में 
  42. मुझे न होगी धन की चिंता 
  43. मेरा मन विश्राम न जाने 
  44. मेरे जाने की वेला है 
  45. मैंने तेरी तान सुनी है  
  46. मैंने रँग-रँग के फूल बिछाए है 
  47. मैंने सपने में प्रिय देखे 
  48. यदि मैं तुम्हें भूल भी जाऊँ 
  49. रक्षा करो इनकी, प्रभु! काल के झकोरों से 
  50. सब कुछ कृष्णार्पणम्, सब कुछ कृष्णार्पणम्   
  51. सब कुछ स्वीकार 
  52. सब धरती की ही माया 
  53. सहज हो प्रभु साधना हमारी  
  54. हम सब खेल खेलकर हारे  
  55. हमारा फिर श्रृंगार करो  
  56. हमारा प्यार अधूरा है 
  57. हर संध्या श्रृंगार किये मैं 
  58. हाथ से साज़ नहीं छोड़ा है  
  •  “’विनयपत्रिका’ के तुलसी की तरह ’सब कुछ कृष्णार्पणम्‌’ का कवि भी अपने प्रभु से साक्षात्‌ वार्तालाप करता-सा प्रतीत होता है।”
    -पं. विष्णुकान्त शास्त्री (पू. अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, कलकत्ता वि.विद्यालय, राज्यपाल, हिमाचल प्रदेश)