शब्दों से परे_Shabdon Se Pare
- इसलिए मैं व्यक्त से अव्यक्त
- ऐसे ही रहा
- ओ मेरे मन! तू इतना चिर
- करुणामय! तेरी करुणा का मधुर
- किस-किसका दूँ धन्यवाद
- कुछ भी नहीं किया
- कुछ भी मत हो, मत हो
- कैसे पार उड़ूँ जीवन के
- घुटती साँस, छूटता साहस
- जाने मैंने उस जीवन में
- जीवन तो ताशों का घर है
- जीवन में संघर्ष न हो तो
- डूब रहा हूँ मैं महाशून्य के
- तीर तो तान-तानकर मारे
- दिन का शेष हुआ जाता है
- दीपक के बुझने का पल है
- दुःख के नील घनों में
- दुःख सहने को बना मनुज
- देख चुके चाँदनी रात कवि!
- धरती पर अम्बर के नीचे
- न कोई पेड़-पौधा है,
- नाव में छेद हुआ
- निज से कुछ और बड़ा होना है
- पल-पल, प्रहर-प्रहर
- फट-फत’ मेरे पांवों के पीछे आता यह कौन है
- फिरे, सब फिरे
- फूल रे! झड़ने के दिन आये
- फूलों की पँखुरियों पर रखना प्रभु
- बिगड़ी बात बनाते हो तुम
- मृत्यु की खोज में दीप यह प्राण का
- मेरा तो लघु तारा
- मुक्ति की बातें निरी ढोंग है
- मैंने जो लिखा है
- मैंने तो केवल भाषा दी है
- मैंने मन का मोल किया था
- मैंने यह साँप क्यों पकड़ा है
- यह कैसा वर है !
- यह भी बीत जायेगा
- यों तो आज धरती में गड़ा हूँ
- यों ही हरदम चला करेंगे
- रात का चँदोवा घिर गया
- रूप न राग न रस की वर्षा
- लो उतर गयी हलदी के रँग की साँस एक
- वह नहीं जो लिख सका मैं
- शिशु कहीं चीख रहा एक अँधेरी छत से
- शेष की दीवार
- सबके हित एक-सा खिला
- सबने तो लिए लूट निज-निज भाग
- हूँ शरबिंधा आखेट मैं
• “’शब्दों से परे’ में गोचर से अगोचर की ओर एक प्रच्छन्न प्रस्थान है। कहीं-कहीं कवि का अंतर्मन महाशून्य के द्वार पर दस्तकें देता हुआ दीखता है।”
-डॉ॰ कुमार विमल