अहल्या_Ahalya

प्रथम खंड
1 आवर्थ शून्य के जलद-पटल-सी खोल सघन
2 कौतुकमय पलकें, अधरों पर ज्योतिर्लेखा
3 जड़ गया भाल पर बिंदु, अरुण किरणों से घिर
4 अंबर-तरु-खसित विकीर्ण भूमि पर जलद-लता
5 मैं कौन? कहाँ से तिर आयी हिम-कणिका-सी ! 
6 ‘घुलते प्राणों में मेरे सौरभ के मृदु घन
7 ‘मैं कली, सूँघ सब जिसे निमिष भर दें उछाल
8 ‘यह सृष्टि चक्र-सी वक्र, क्षितिज-नभ-जलधि क्रुद्ध
9 ‘जो प्रेम अमर मुझको छूकर वह मलिन, दीन
10 हँस पड़े पितामह दुग्ध-धवल दाढ़ी समेट
11 ‘पद-नूपुर-शिंजित नहीं, रूप-लावण्य क्षीण
12 यह कमल नहीं, अंगार, अपरिवर्तित जिस पर
13 क्रमश: तारक द्युतिहीन, लीन स्वर-मधुप-वृन्द   
14 गौरांग, स्वस्थ, तप-पूत, ज्योति के सायक-से
15 अचपल दीपक-सी बँधी पलक, अणु-अणु थर-थर
16 पल में कानन वह सजा मधुर नंदनवन-सा
17 मुड़ देखा मुनि ने ज्यों पूनो की चंद्र-किरण
18 ‘लौटी रंभा-उर्वशी-मेनका मान हार
19 यह भग्न गेह, कृश नग्न देह, हिम-ताप-शीर्ण
20 स्वर-फूटे दग्ध हृदय को शीतल चंदन-से
21’वल्कल के वसन, अशन-आश्रम-फल-कंद-मूल
22 पर काँप उठी वाणी मुनि की चलदल-दल-सी
23 दृग-तारों से छलके छल-छल आँसू कजल
24 झनझना उठे यौवन की लय में तार-तार
25 वन-वन सुगंध के बौर मौर से गये झूल
26 यों ही जीवन के बीते कितने संवत्सर
27 निष्फलताओं में खीझभरी-सी अकुलात
28 वासंती संध्या, मंद पवन लेता झकोर-
29 ‘जीवन से क्या
30 सहसा झलका सिंदूर भाल का रकक्‍तारुण
31 जैसे कर से छुट मुकुर गिरे भूपर अभंग
32 नारीत्व बिना जिसके निष्फल जल-चित्र-सदृश
33 सहसा मुनिवर को देख कुशासन लिये काँख
34 संकुचित भीत-सी उठी अहल्या स्वागत को
35 बिँध रहा एक शर, अपर सामने अड़्ता था
इस ओर व्यर्थ लगता था जीवन प्रिया-हीन
37 पक्षी ज्यों ज्वाला-विषिख-विद्ध नभ-मंडल में
38 समर से देखी स्वामी की यह जड़ता न गयी
39 स्मिति-सी किरणों पर प्राण पवन के आर-पार
40 आँगन में सहसा फैल गया दिन-सा प्रकाश
41 संध्या-वंदन को गये त्वरित मुनि छोड़ शयन
42 ‘यह कौन कक्ष में पूनोशशि-सा मंद-स्मित
43 ‘थी शेष रात कुछ अभी, विकल फिर आया मैं
44 ‘सुरपति यह जिसने पति-अनुकृति धर ली अनूप
45 ‘सोये मानस में जिसके मृदु सपने जगते
46 मंत्रित भुजंग-सी दीप्त चेतना सलज, मौन
47 स्वप्नोत्थित-सी संकुचित सेज की ओर चली
48 आशा-आशंकाकुल कंपित हिम-लतिका-सी
49 उन्मत्त शिरायें, शतमुख उर-शोणित-प्रवाह
50 जानी न रात कब ढली बात ही बातों में
51 पगध्वनि सहसा, भुजबंधन-से खुल गये द्वार
52 प्रेयसी वही जो वय-स्नेहाकुल, सजल-प्राण
53 पल में विद्युतू-सा कौंध गया निशि का प्रसंग
54 सागर भी मर्यादा यदि पल में भूल जाय
55 मुड़कर देखी सहसा पत्नी-मुख छवि विवर्ण
56 जीवन विषमय कर गयी हृदय की क्षणिक चूक
57 ‘जीवन के जड़ सुख-भोग भोग जो इष्ट तुझे

द्वितीय खंड
1 सरयू के पावन तीर जहाँ मुनि-मन-भावन
2 अभिषिक्त किये जाते पावन वैदिक सुर से
3 ‘ये मूदुल अल्प-वय बाल कमल के दल जैसे
4 सहसा खुल गये बंद अंतर के ज्योति-द्वार
5 जाज्वल्यमान शत भानु, अतल-पद, मेरु-शीष
6 घन-सजल-श्याम, छवि-धाम, भक्त-भव-भय-हारी
7 ‘जब तक धरती पर गंगा-यमुना की धारा
8 कुछ क्षण रुक बोले मुनि फिर नृप का देख चाव
9 खिँच गयीं वृद्ध नृप के ललाट पर रेखायें
10 स्तंभित-सी परिषद, नृप-गुरु सोये-से जागे
11 बोले मुनि, “राजन, धैर्य धरो सब सुनकर भी
12 थी स्तब्ध सभा, नृप सूख गये ज्यों दिखा व्याल-
13 ‘सुत-विरुद न करता नर्तित किसका मन मयूर
14 ‘चारों पुत्रों पर प्रीति समान सदा की है
15 ‘पुर, परिजन, प्रिय, परिवार, बंधु, धन, धाम, सही
16 हो गया धन्य जिसपर कौशिक ने धरा हाथ
17 बोले कौशिक ‘यह नहीं शोक का है अवसर
18 नृप कह न सके कुछ रुद्ध-कंठ, बस इंगित से
19 धनु-शर-परिकर, शिर-मुकुट, पीत-पट, भूकुटि-वाम
20 पुरवासी पथ देते न तनिक समझाये भी
21 दिख पड़ी सामने सरयू निर्मल पुण्य-पाथ
22 ‘नर-तनु निष्फल पर-हित में नहीं लगाया जो
23 सब फिरे वचन-आश्वस्त प्रजाजन कर जुहार
24 दशरथ सुनते ही हर्ष-प्रीति से उठे ललक
25 गुण-शील-रूप-व्रत एक, राम-प्रतिछवि ललाम
26 इस ओर कठिन आश्रम-ब्रत ले मुनि से मुदमन
27 मच गयी खलबली असुरों के साम्राज्य-बीच
28 हो गया ढेर पल में सुबाहु-मुख-बाहु-हीन
29 ‘तुम साधन-हीन दीन जन के रक्षक, त्राता
30 ‘मर्यादा जाग उठी धर्मों की लुप्त-प्राय
31 लौटे मुनिगण करते दिशि-दिशि प्रभु-यशोगान
32 आँखों में काजल की गहरी रेखा आँकी
33 दिन बीते, बीती रात, प्रात, फिर साँझ हुई
34 देखे मुनि के सँग कोटि-काम-शोभाभिराम
35 यवनिका अंध भावों की सहसा गयी उलट
36 श्यामल अलकें ज्यों बिछी शिला सम्मुख प्रभु के
37 मंगल-गौरव-छवि-धाम
38 ‘जय राम ज्योति के धाम! विगत-भय-काम-क्रोध !
39 ‘दुख भोग रही जो कर्म-चक्र-भ्रमिता, सकाम
40 ‘अंतर में जो भी कलुष, पाप, लांछना, व्यथा,
41 दृग से झर-झर आँसू बरसे, रुंध गया गला
42 ‘रवि-शशि से मन की चपल वृत्ति में बँधे आप
43 ‘जो पीड़ित, लांछित, दीन, दुखी, दुर्बल, अनाथ

  • “कवि के शब्द-चयन, उसके भाषा के अधिकार, सुन्दर वर्णमैत्री और अभिव्यक्ति की सामर्थ्य ने मुझे अत्यन्त प्रभावित किया है। प्रांजल और संस्कृतनिष्ठ होते हुये भी कहीं भी मुझे क्लिष्‍टता नहीं दीख पड़ी. भाषा पर कवि का असाधारण अधिकार है। इस काव्य का प्रकाशन एक ’घटना’ है और मुझे विश्वास है कि यह काव्य कालांतर में हिन्दी का एक गौरव-काव्य माना जायेगा.”

-पद्मभूषण पं॰ श्रीनारायण चतुर्वेदी

  • “जिस विषय पर पुराणों से लेकर आधुनिक काल तक अनेक महान कलाकारों ने लिखा है, उसपर कुछ नया या नये ढंग से लिखना आसान नहीं है। लेकिन इस दुष्कर कार्य का संपादन गुलाबजी ने बहुत सफलता के साथ किया है।”

श्री गंगाशरण सिंह (अध्यक्ष अ. भा. हिन्दी संस्था संघ)